मनसा महादेव व्रत कथा | Mansha Mahadev Vrat Katha in Hindi
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एक समय की बात है, कैलाश पर्वत पर महादेवजी तथा पार्वतीजी विराजे हुए थे। वहां चारो ओर शीतल, मन्द तथा सुगन्धित हवा चल रही थी । चारो ओर वृक्ष की लताओं पर पुष्प तथा फल लदे हुए थे। ऐसे सुहावने मौसम में पार्वतीजी ने महादेवजी से कहा कि हे नाथ ! आज चलो चौसर खेलते हैं। तब महादेवजी ने कहा कि चौसर के खेल में छल-कपट बहुत होता है, इसलिए कोई मध्यस्थ होना चाहिए। महादेवजी के इतना कहते ही पार्वतीजी ने अपनी माया से वहां एक बालक बनाकर बैठा दिया तथा महादेवजी ने अपने मंत्रों के बल से उसमें जान डाल दी। महादेवजी ने उस बालक का नाम अंगद रखा तथा बालक को आदेश दिया कि तुम हम दोनों की हार जीत को बताते रहना। ऐसा कहकर महादेवजी ने चौसर का पाशा चलाया और अंगद से पूछा कि बताओ कौन जीता और कौन हारा है ?
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तब अंगद ने उत्तर दिया कि महादेवजी आप जीते हैं और पार्वतीजी हारी हैं । इसके बाद महादेवजी ने फिर पाशा फेंका और अंगद से पूछा कि इस बार कौन जीता और कौन हारा ? इस बार भी अंगद ने वही जवाब दिया कि महादेवजी जीते हैं और पार्वतीजी हारी हैं ।
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इसी प्रकार तीसरी बार भी पाशा चलाकर महादेवजी ने अंगद से पूछा तो इस बार महादेवजी हार गए थे परन्तु अंगद ने विचार किया कि यदि मैं महादेवजी को हारा हुआ बताऊंगा तो ये मुझे श्राप दे देंगे। ऐसा सोचकर अंगद ने फिर वही पुराना रटा-रटाया उत्तर दे दिया कि महादेवजी जीते हैं और पार्वतीजी हारी हैं।
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चूंकि इस बार अंगद ने झूठ बोला था तो माता पार्वतीजी ने अंगद को श्राप दे दिया कि तेरे शरीर मे कोढ़ हो जाए और तू निर्जन वन में भटकता फिरे।
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उसी समय अंगद को कोढ़ हो गया और वह भटकता हुआ किसी सुनसान वन में जा पहुंचा। वहां जाकर उसने देखा कि ब्रह्माणी, इन्द्राणी आदि देवताओं की स्त्रियां व्रत के निमित महादेवजी की पूजा कर रही हैं। उनको पूजा करते देखकर अंगद ने उनसे पूछा कि आप यहाँ क्या कर रही हो ? तब उन देवीयों ने अंगद को बताया कि हम तो मनसा वाचा नाम से प्रसिद्ध महादेवजी की पूजा कर रही हैं, यानी कि अपने मन तथा वाणी को वश में करके अर्थात् सभी जगह से मन हटाकर और शिव-पार्वती में ही अपना मन लगाकर पूजा कर रही हैं, इसीलिए इस व्रत का नाम भी मनसा वाचा व्रत रखा गया है।
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इसके पश्चात् उस बालक अंगद ने पूछा कि इस व्रत के करने से क्या फल होता है ? अब उन देवीयों ने उत्तर दिया कि इस व्रत को करने से सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
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अब अंगद ने कहा कि मैं भी इस व्रत को करना चाहता हूँ। यदि आप इसकी विधि मुझे बता सकें तो आपकी बड़ी कृपा होगी। तब उन देवीयों ने अंगद को चावल तथा सुपारी देकर व्रत करने की पूरी विधि-विधान बताया कि इस व्रत को श्रावण मास के पहले सोमवार से करना चाहिए। उस दिन कंवारी कन्या से ढाई पूणी सूत कतवाकर उसका डोरा बनाएं। उस डोरे की तथा महादेवजी की पूजा जब तक कार्तिक सुदी चौथ नही आए तब तक प्रति सोमवार करते रहना चाहिए, साथ ही व्रत भी रखना चाहिए। जब कार्तिक सुदी चौथ आए तो उस दिन उद्यापन करना चाहिए।
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उद्यापन में सवा सेर घी, सवा सेर गुड़ तथा सवा चार सेर आटा लेकर चूरमा बनाए। इस चूरमे के लड्डू बनाकर उसके चार समान भाग कर लें। इनमें से एक भाग महादेवजी के चढ़ाए, एक भाग किसी ब्राह्मण या नाथ को दें, एक भाग गाय को दें तथा बाकी बचे भाग का स्वयं भोजन करें।
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इस व्रत का उद्यापन कोई भी करे, वह चाहे राजा हो या रंक सबको इतना ही सामान लेना चाहिए। यदि व्रत करने वाला मनुष्य या स्त्री चौथे भाग को पूरा न खा सके तो पहले से ही उसमें से निकाल कर किसी को दे देवे। जिस प्रकार कि अनंत भगवान का डोरा पहना जाता है, उसी प्रकार जो डोरा बनाया था उसे स्वयं धारण कर लें और उद्यापन के पश्चात् उस डोरे को जल में पधरा दें।
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इस प्रकार अंगद भी प्रति वर्ष मंशा महादेव का व्रत करने लगा। उसे व्रत करते करते हुए चार वर्ष हो गए। तब व्रत के प्रभाव से पार्वतीजी के हृदय में दया उत्पन्न हुई और उन्होंने महादेवजी से पूछा कि महाराज जिस बालक को मैंने श्राप दिया था उसका कुछ पता नहीं है कि उसको किसी ने मार तो नहीं दिया। तब तीनों लोकों की सभी बातें प्रत्यक्ष रूप से जानने वाले श्री महादेवजी ने पार्वतीजी से कहा कि वह तो जीवित है ।
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इसके पश्चात् पार्वतीजी ने महादेवजी से कहा कि हे ! नाथ, ऐसा कोई व्रत हो तो बताओ जिससे कि मेरा वह मानसिक पुत्र फिर से मुझे मिल जाए। तब महादेवजी ने कहा कि श्रावण सुदी के पहले सोमवार के दिन कंवारी कन्या से ढाई पूणी सूत कतवाकर उसका डोरा बनाना और उसे केसर आदि में रंगकर, उसमें चार गांठें देकर, सुपारी पर लपेटकर, ताम्ब्र पात्र में रखकर, उसे शिव रूप मानकर, उसकी तथा शिवजी कि पूजा करना। इस प्रकार सोमवार के सोमवार शिवजी की पूजा करना।
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कार्तिक सुदी चौथ के दिन इस व्रत का उद्यापन करना जिसमें सवा सेर घी, सवा सेर गुड़ और सवा चार सेर आटा लेकर उसका चूरमा बनाना तथा उस चूरमे के चार भाग करना। जिनमें से एक भाग शिवजी के अर्पण करना, दूसरा भाग ब्राह्मण को देना, तीसरा भाग गाय को तथा चौथा भाग स्वयं भोजन के रूप में ग्रहण करना। सभी को इसी मात्रा में सामान लेना चाहिए, न तो सामान इससे अधिक होना चाहिए तथा न ही इससे कम।
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महादेवजी से यह विधि सुनकर पार्वतीजी ने भी यह व्रत किया तथा व्रत के प्रभाव से अंगद कोढ़ रहित हो गया और वह अपनी माता के पास बिना बुलाए ही चला गया। उसे आता देखकर पार्वतीजी प्रसन्न होकर हँसने लगी तो अंगद ने पूछा कि, हे मातेश्वरी ! आप मुझे देखकर हंस क्यों रही हो ? तब पार्वतीजी ने कहा, हे पुत्र ! मैं इस व्रत के प्रभाव को देखकर हंस रही थी। यह तुम्हारे पिताजी का बताया हुआ मनसा वाचा का व्रत है। यह व्रत मैंने किया, तभी तो तुम ठीक होकर मेरे पास आ गए हो।
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इस बात को सुनकर अंगद ने कहा कि हे माता ! मैंने भी यह व्रत किया था, इसी से मेरा कोढ़ मिट गया है। तब पार्वतीजी ने कहा कि हे पुत्र ! अब तेरी क्या इच्छा है वह बता। तब उस पुत्र ने कहा कि हे जगत जननी मां, मुझे उज्जैन नगरी का राज्य करने की और वहाँ की राजकुमारी से ब्याह करने की इच्छा है। पुत्र के इतना कहते ही पार्वतीजी ने उससे कहा कि जा तुझे उज्जैन का राज्य मिल जायेगा, तू फिर से इस मनसा वाचा के व्रत को कर। इस प्रकार अंगद ने पुनः चार वर्ष तक यह व्रत किया तब उसे उज्जयनी का राज्य मिल गया।
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अब नारदजी राजा युधिष्ठर से कह रहे हैं कि उसे राज्य किस प्रकार मिला तो सुनो। उज्जैन के राजा-रानी वृद्ध हो गए थे, उनके कोई पुत्र नहीं था केवल एक राजकुमारी थी। इसलिए राजा-रानी ने सोचा कि इस कन्या का विवाह किसी राजकुमार से करके उसको राज्य दे देंगे। ऐसा निश्चय कर उन्होंने एक स्वयंवर रचा, जिसमें कई देशों के राजकुमार आए।
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तब वहां के राजा ने एक हथिनी को श्रृंगार कराके पूजा करके हाथ जोड़कर कहा कि, हे ! हथिनी तुम देवस्वरूपा हो, तुम यह माला लो और जो भी इस राज्य को संभालने में सक्षम हो तथा राजकुमारी के लायक वर हो उसे यह माला पहना दो। किसी मामूली मनुष्य को यह माला मत पहना देना। पार्वतीजी का पुत्र अंगद भी देवलोक से उज्जैन नगरी पहुंचा तो वह भी स्वयंवर देखने के लिए राजा के वहां चला गया। हथिनी ने उसे देखकर उसके ही गले में माला डाल दी।
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यह सब देखकर स्वयंवर में आए लोगों ने कहा कि यह तो हथिनी की भूल है, क्योंकि यह बालक कोई राजकुमार नहीं है। ऐसा कहकर उन लोगों ने उस लड़के को दूर हटा दिया और पुनः वह माला हथिनी को दे दी और उससे प्रार्थना की कि हे ! माता, जो इस राज्य के लायक हो उसको ही माला पहनाना। परन्तु दूसरी बार भी हथिनी ने उस बालक के पास जाकर उसी के गले में माला डाल दी।
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यह सब देखकर वहां उपस्थित लोग कहने लगे कि हथिनी ने हठ पकड़ ली है, इतना कहकर उन्होंने उस बालक को मारपीट कर दरवाजे से बाहर निकाल दिया एवं पुनः हथिनी पर गणपति की मूर्ति स्थापित करके वही प्रार्थना की। वह हथिनी देवरुपी थी, इसलिए वह दरवाजे के बाहर निकली और उस बालक को ढूंढकर तीसरी बार भी उसी के गले में माला डाल दी।
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तब राजा ने नगर सेठ को बुलाकर कहा कि तुम इस बालक को यहां से ले जाओ और बारात सजाकर इसे हमारे यहाँ ले आओ। राजा की आज्ञा मानकर सेठ अंगद को वहां से ले गया। इतनी देर में राजा ने भी पंडितों को बुलाकर लग्न का दिन निश्चय करवा दिया और अपनी कन्या का विवाह उस बालक के साथ कर दिया। इतना ही नही राजा ने अपने खर्चे के लिए थोड़े से गांव रखकर अपना सारा राज्य ही अपनी बेटी को कन्यादान में दे दिया।
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विवाह के पश्चात् अंगद और राजकुमारी महलों में गए, अब अंगद उज्जैन नगरी का राजा तथा राजकुमारी वहां की रानी बन चुके थे। एक दिन रानी ने राजा से पूछा कि हे ! पतिदेव, आप अपनी जात और नाम तो बताइए। इस पर अंगद ने उत्तर दिया कि मेरा नाम अंगद है, भगवान महादेव मेरे पिता और पार्वतीजी मेरी माता हैं। तब राजकुमारी ने कहा कि महाराज इस बात को तो इस मृत्युलोक के लोग मानेंगे नहीं, आप मुझे सत्य-सत्य बताइए। तब अंगद ने अपने जन्म की सारी कथा रानी को बताई कि किस तरह चौसर के खेल में साक्षी बनाने के लिए माता पार्वतीजी ने अपनी माया से उसे बनाया था और महादेवजी ने अपने मन्त्र बल से उसे सजीव रूप दिया। फिर पार्वतीजी ने उसे श्राप दिया और इन्द्राणी आदि देवीयों ने उसे मनसा वाचा व्रत बताया, जिसको चार वर्ष तक करने के फलस्वरूप वह अपने माता-पिता के पास वापिस पहुंचा।
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उसे पार्वतीजी ने गले लगाया और कहा कि अब तुम्हारी क्या इच्छा है ? तब उसने अपनी माता से कहा कि उसे उज्जयिनी के राजा बनने की इच्छा है। तब पार्वतीजी के कहने पर उसने फिर से चार वर्ष तक मनसा वाचा नाम से प्रसिद्ध अपने पिता शिवजी का व्रत किया तथा इसी व्रत के प्रभाव से आज उसे उज्जैन का राज्य और उसके जैसी रानी मिली है।
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इतना कहने के पश्चात् अंगद ने रानी से कहा कि अब मेरी राज्य की अवधि पूरी हो गई है, अब मैं अपने माता-पिता के पास पुनः कैलाश पर्वत जाना चाहता हूँ। तुम्हारी क्या इच्छा है वो मुझे बताओ जिससे मैं तुम्हे वरदान देकर जाऊँ और उसका उपाय बताकर जाऊँ।
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इतना सुनकर रानी ने कहा कि हे ! महाराज, मैं तो पुत्र, धन तथा राज्य का सुख चाहती हूँ। तब अंगद ने अपनी रानी को वही मनसा वाचा का शिवजी का व्रत बता दिया और कहा कि बिना मेरे व गर्भवास के तेरे पुत्र होगा। ऐसा कहकर अंगदजी पुनः कैलाश चले गए।
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पति की आज्ञानुसार राजकुमारी ने चार वर्षों तक महादेवजी का यह उत्तम व्रत किया। इससे महादेवजी प्रसन्न हो गए। एक दिन रानी ने अपनी दासी से कहा कि जा ऊपर जाकर जल की झारी ले आ, मैं दांतून करूंगी। दासी ऊपर गई तो वहां जाकर क्या देखती है कि सोने की पालकी में एक छोटा सा सुन्दर बालक सो रहा है और मुंह में अंगूठा चूस रहा है। दासी ने रानी को जाकर जब यह बात बताई तो रानी ने तुरन्त जाकर बालक को अपनी गोद में उठा लिया और भगवान शंकरजी से प्रार्थना की कि हे ! प्रभु, यदि आपने मुझे यह बालक दिया है तो मेरे स्तनों में से दूध की धारा भी निकलनी चाहिए। रानी के इतना कहते ही उसके स्तनों में दूध आ गया। इस प्रकार वह बालक बड़ा होने लगा, रानी ने उस बालक का नाम फूलकंवर रखा।
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एक दिन फूलकंवर ने अपनी माँ से पूछा कि हे ! माँ, मेरे पिता कौन हैं और उनका क्या नाम है ? तब रानी ने अपने पुत्र से कहा कि तेरे पिता तो अंगदजी हैं और महादेवजी-पार्वतीजी तेरे दादा-दादी है। तब फूलकंवर ने अपनी माता से कहा कि इस बात को तो मृत्युलोक मे कोई नहीं मानेगा नहीं। इस पर रानी ने फूलकंवर को वह सारी कथा सुनाई जो अंगदजी ने रानी को सुनाई थी और यह भी बताया कि किस तरह से उसका विवाह अंगदजी के साथ हुआ था। परन्तु चूंकि अंगदजी की मृत्युलोक में रहने की अवधि कुछ ही दिन की थी इसलिए वे तो अपने माता-पिता के पास कैलाश चले गए, परन्तु उनके बताए हुए व्रत को चार वर्ष तक करने के पश्चात् बिना गर्भवास के ही उसने रानी के पुत्र के रूप में जन्म लिया है। इतना कहकर रानी बोली अब तुम बताओ कि तुम्हारी क्या ईच्छा है ?
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माता के वचन को सुनकर पुत्र ने कहा कि हे ! माता, मेरी इच्छा चेदिराजा की कन्या से विवाह करने की है, क्योंकि मैंने उसकी प्रसंशा सुनी है । तब रानी ने फूलकंवर से कहा कि हे ! पुत्र, तू भी मनसा वाचा का व्रत कर, इस व्रत के करने वाले के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। अब फूलकंवर ने भी चार वर्ष तक व्रत किया, इससे भगवान महादेव प्रसन्न हुए और उन्होंने चेदिराजा को स्वप्न में आदेश दिया कि मेरे कहने से तू अपनी राजकुमारी का विवाह उज्जैन के राजकुमार फूलकंवर से कर दे। चेदिराजा ने भगवान शिवजी का कहा मानकर अपनी कन्या का विवाह उज्जैन के राजकुमार से कर दिया। अब वह राजा हो गया।
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एक दिन वह शिकार खेलने वन में गया। वहाँ उसके कोई शिकार हाथ नहीं आया और वह भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक बाग में जाकर आराम करने लगा। इतने में देवयोग से कोई ब्राह्मण वहां आ पहुंचा और उसने राजा को श्रीधरी पञ्चांग सुनाया कि आज कार्तिक सुदी चौथ है सो आज मनसा वाचा के व्रत का उद्यापन करने का दिन है। इतना सुनते ही राजा ने ब्राह्मण से कहा कि महाराज ! मुझसे तो भूल हो गई, आप हमें अब पूजन करादें। ब्राह्मण ने पूजा के लिए शहर में रानी को खबर भेजी कि राजा साहब शिकार के लिए यहाँ वन में ठहरे हुए हैं और चूंकि आज कार्तिक सुदी चौथ का उद्यापन करना है इसलिए सवा चार सेर आटा, सवा सेर घी, सवा सेर गुड़ का चूरमा बनवाकर मंगवाया है।
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इस पर रानी ने सोचा कि फौज के कई आदमी भी राजाजी के साथ हैं, इसलिए इतने से चूरमे से क्या होगा ? इसलिए रानी ने गाड़ी भरकर चूरमा भेज दिया, जो कि नियम विरूद्ध था। इतना अधिक प्रसाद होने से महादेवजी क्रुद्ध हो जाए और उन्होंने कोप करके राजा को स्वप्न में कहा कि तुम अपनी रानी को निकाल दो, नहीं तो मैं तुम्हारा सारा राज्य नष्ट कर दूँगा। राजा ने प्रमाण के अनुसार दुबारा चूरमा बनवाकर व्रत पूरा किया।
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महादेवजी के कथन के अनुसार राजा ने रानी को महल से निकलवा दिया। रानी किले से रवाना होकर कुछ दूर चली ही थी कि उन्हें राजा के दीवान मिले। दीवानजी ने रानी से पूछा कि रानी साहिबा आप कहाँ पधार रही हो ? तब रानी ने पूरी बात बता दी। तब दीवानजी ने कहा कि मैं राजाजी को समझाकर राजी कर लूँगा, तब तक आप मेरी हवेली मे पधारें। परन्तु जैसे ही रानी दीवानजी कि हवेली में पहुंची कि दीवान अंधा हो गया। तब दीवान ने हाथ जोड़कर कहा कि रानीजी आप यहाँ से पधारो। रानी वहां से रवाना होकर आगे बढ़ी तो उन्हें नगर सेठ मिल गया। उसने भी यही कहा कि वह राजा साहब को एक-दो दिन में मना लेंगे, तब तक आप हमारे घर पर ही बिराजें। रानी नगर सेठ के घर गई, तो सेठ की हुंडियां चलने से बंद हो गई और कई उपद्रव होने लगे। अब सेठ ने भी हाथ जोड़कर कहा कि रानीजी आप यहाँ से पधारें।
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रानी वहां से आगे गई तो उसे राजाजी का कुम्हार मिला। कुम्हार को रानी पर दया आ गई । वह रानी को अपने घर ले गया, पर जैसे ही कुम्हार के घर पर रानी पहुंची ही थी कि उसका न्याव फूट गया, जिससे सारे बरतन फूट गए और कुम्हार भी अंधा हो गया। तब कुम्हार ने भी रानी से उसके घर से निकल जाने की प्रार्थना की। आगे जाने पर एक माली मिला और माली ने रानी से पूछा कि आप कहाँ पधार रही हो, तो रानी ने कहा कि राजा साहेब ने मुझे देश निकाला दिया है। इस पर माली को रानी पर दया आ गई और वह रानी को अपने बाग मे ले गया और उसने रानी से कहा कि जब तक राजाजी का क्रोध मिटे तब तक आप यहाँ बाग में ही रहो। परन्तु रानी के बाग में जाते ही बाग के सारे पेड़-पौधे सूखकर जलने लगे, क्यारियों का पानी भी सूखने लगा, इतना ही नही माली को भी कम दिखने लगा। तब माली ने भी रानी से वहां से चले जाने की विनती की।
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रानी वहां से निकल कर विचार करने लगी कि मुझसे ऐसा क्या पाप हो गया कि मैं जहाँ भी जाती हूं वहां अनर्थ होने लगता है। ऐसा सोचते-सोचते रानी ने देखा कि आगे दो रास्ते हैं। किसी व्यक्ति से पूछने पर रानी को मालूम हुआ कि, एक रास्ता तो छः महीने का है, जबकि दूसरा केवल तीन दिन का। रानी तीन दिन वाले रास्ते पर चलने लगी। आगे जाने पर उसे क्षिप्रा नदी मिली। रानी ने दुःख के मारे उसमें कूदकर आत्महत्या करनी चाही, परन्तु जैसे ही वह नदी में कूदी तो नदी ही सूख गई। वह और आगे चली तो एक पर्वत आया। रानी ने सोचा कि इस पर चढ़कर नीचे कूदकर अपनी जान दे दे। यह सोचकर वह पर्वत पर चढ़ी और जैसे ही नीचे कूदने लगी कि पर्वत जमीन के बराबर हो गया। आगे जाने पर रानी को एक सिंह दिखाई दिया, इस पर रानी ने सोचा कि इस सिंह को छेडूं तो शायद यह मुझे खा जाए, यह सोचकर उसने सिंह पर हाथ फेरा तो सिंह पत्थर का हो गया।
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आगे जाने पर रानी को बड़ा भारी अजगर सांप दिखाई दिया। इस पर रानी ने मरने के लिए उस बड़े सांप को छेड़ा तो सांप रस्सी बन गया । अब रानी थक हारकर और आगे चली तो क्या देखती है कि वहाँ एक बड़ा भारी पीपल का वृक्ष है, उसी वृक्ष के पास एक सुन्दर कुंआ और एक मंदिर बना हुआ है। वह मंदिर मे जाकर मुंह ढककर बैठ गई और ॐ नमः शिवाय मन्त्र का जाप करने लगी।
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किस्मत से उस दिन कार्तिक सुदी चौथ का दिन था, मंदिर का पुजारी नाथ सामान लेने गांव गया था। वहां उसको एक कुत्ते ने काट लिया। तब पुजारी नाथ ने विचार किया कि हमारे आश्रम में ऐसा कौन पापी आ पहुंचा है, जिसके कारण यह उत्पात हो गया है। मंदिर जाकर नाथ ने एक स्त्री को बैठे देखा तो कहने लगा आज यहां कोई डाकन या भूतनी आ गई है । तब रानी ने विनयपूर्वक कहा कि महाराज मैं न तो डाकन हूँ और नही भूतनी । मै तो मानवी हूँ, आकाश की घेरी और ज़मीन की झेली हुई एक दुःखी स्त्री। यदि आप मुझे धर्म की बेटी बनाओ तो मैं आपको अपना सारा भेद कहूँ।
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नाथ ने यह स्वीकार कर लिया तो रानी ने अपना सारा भेद कह दिया, अब वह वहां से जाने लगी तो चल नहीं सकी। तब पुजारी नाथ ने उद्यापन का एक लड्डू उसे खाने को दे दिया। लड्डू को हाथ में देखते ही रानी को व्रत याद आ गया। नाथ ने भी बता दिया कि आज कार्तिक सुदी चौथ है, और यह मनसा वाचा के व्रत का प्रसाद है। इसका नियम है कि राजा हो तो भी अधिक प्रसाद न बनाए और गरीब हो तो भी कम न बनाए। यह एक भाग का लड्डू है। तब रानी के समझ मे आ गया कि उसने प्रसाद का चूरमा ज्यादा भेजा था इससे महादेवजी उससे क्रुद्ध हो गए हैं।
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ऐसा विचार कर रानी ने पुजारी नाथ से प्रार्थना की कि हे ! महाराज, इस व्रत को अब मैं भी करना चाहती हूँ। तब नाथ ने कहा कि श्रावण सुदी चौथ आ रही है, इस दिन से तुम व्रत शुरू करो। फिर नाथजी ने कंवारी कन्या से पूणी कतवाकर उसका डोरा बना दिया। पूजन का सामान लाकर सोमवार के सोमवार रानी व्रत और पूजन करती रही। जब कार्तिक सुदी चौथ आई तब नाथजी गांव जाकर सामान ले आए और सवा सेर घी, सवा सेर गुड़, सवा चार सेर आटे का चूरमा बनाया। चूरमे के चार भाग किए गए और शिवजी-पार्वतीजी की मनसा वाचा पूजा की।
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इस तरह व्रत करते हुए रानी को चार वर्ष पूरे हो गए तो महादेवजी ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि राजन ! अब तू रानी को वापस बुलवा ले, नहीं तो मैं तेरे राज्य का नाश कर दूंगा। तब राजा ने कहा कि महाराज ! अब रानी का पता लगना कठिन है, आपकी आज्ञा से ही तो मैंने उसे देश निकाला दिया था। तब महादेवजी ने कहा कि हे राजन ! तू चार विश्वासी नौकरों को पूरब के दरवाजे पर भेज दे, वहां बिना नाथे हुए बैलों कि गाड़ी आएगी वह गाड़ी वहीं जाकर ठहरेगी जहाँ पर तुम्हारी रानी है।
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प्रातःकाल होते ही राजा ने अपने चार विश्वासपात्र आदमी पूरब की ओर भेज दिए। आगे बिना नाथे हुए बैलों की गाड़ी आई और वे चारों उसमें बैठ गए और वे उसी मंदिर पर पहुंच गए जहाँ पर रानी थी। रानी को पहचान कर सेवकों ने कहा कि हे ! रानीजी, अब आप पधारिए, राजा साहब ने आपको बुलाया है और इसी कार्य के लिए हमको यहां भेजा है। तब रानी ने नाथजी को कहा कि मै आपकी धर्म की बेटी हूं, इसलिए आप मुझे सीख देकर भेजिए। तब नाथजी ने मिट्टी के हाथी-घोड़ा व पालकी बनाकर मन्त्र के छींटे दिए, जिससे वे सच्चे हाथी-घोड़ा पालकी बन गए।
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रानी ने नाथजी से फिर कहा कि, हे ! पिताजी, आते समय रास्ते में मेरे रहने से कई जीवों का नुकसान हो गया था, तो उनका भी उद्धार हो जाना चाहिए, नहीं तो यह पाप भी मुझको ही लगेगा। तब नाथजी ने शिवजी के निर्माल्य (स्नान कराए जल) की एक झारी भर दी और कहा कि हे ! बेटी, तू इस जल का छींटा ॐ नमः शिवाय कहकर डालती जाना, सो तेरे सारे पाप निवृत हो जाएंगे।
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अब तो रानी शिवजी-पार्वतीजी को और नाथजी को साष्टांग नमस्कार कर, लेने को आए चारों सेवकों के साथ रवाना हो गई। जाते हुए उसे रास्ते में वही सर्प मिला। तब रानी ने शिवजी से प्रार्थना की कि प्रभु मेरे पाप से यह सर्प रस्सी बन गया था, अब यह फिर से सर्प हो जाए। ऐसी प्रार्थना कर झारी के जल से उसके छींटे दिए, जिससे वह पहले के समान सर्प बन गया। आगे उसे वही सिंह मिला, जो पत्थर का होकर पड़ा था, उसके भी रानी ने झारी के जल के छींटे दिए तो तो वह भी जीवित होकर जंगल में भाग गया। आगे चलने पर वह पर्वत आया जो जमीन के बराबर हो गया था, प्रार्थना करके जल के छींटे देने से वह भी पहले जैसा पर्वत हो गया। आगे जाते-जाते वही नदी आई जो सूख गई थी। रानी ने शिवजी का ध्यान कर जल के छींटे दिए, जिससे वह भी गहरे तथा स्वच्छ जल वाली नदी फिर से हो गई।
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अब रानीजी ने पालकी हाथी घोड़े तो किले मे भेज दिए और वह खुद उसी बाग में गई जो पहले सूख गया था। बागवान ने कहा कि रानीजी आप अब फिर क्यों आ रही हो ? पहले ही आपके आने से यह बाग उजड़ गया था, पर रानी के समझाने पर माली ने फाटक खोला। रानी ने बाग में जाकर शिवजी का ध्यान कर झारी के जल के छींटे दिए, जिससे वह पहले से भी अच्छा हरा-भरा बगीचा हो गया। वहाँ कई कोयलें बोलने लगी, नाना प्रकार के फल-फूल दिखाई देने लगे और कुओं में लबालब जल भर गया।
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फिर रानीजी उसी कुम्हार के घर पर गई तो कुम्हार की आँखें खुल गई और जल के छींटे देने से न्याव के बरतन सोने-चांदी के बन गए। कुम्हार ने कहा कि रानीजी ये सोने के बरतन हमारे पास कौन रहने देगा ? तब रानीजी ने कहा कि इनमें से चार बरतन राजा को भेंट कर देना।
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इसी प्रकार रानी नगर सेठ के घर गई तो उसकी हंडियां सिकरने लगी और उसे व्यापार में लाभ होने लगा, तब नगर सेठ ने कहा कि अन्नदाताजी आपके पधारने से हमारे यहाँ रिद्धि-सिद्धि हुई है, इस खुशी में मैं सारी नगरी को जिमाना चाहता हूं। सारी नगरी में ढिंढोरा पिटवा दिया गया कि कल किसी के घर मे धुंआ न निकले, यदि किसी ने चूल्हा जलाया तो वह दंड का भागीदार होगा।
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आगे जैसे ही रानी दीवानजी के यहाँ पहुंची, तो दीवानजी की आँखें खुल गई। सब आनंद हो गया, अब रानी साहिबा अपने किले में पधारी, राजाजी ने उनका अच्छा स्वागत किया। नगर सेठ ने सारे नगर को जिमाया और किले में जाकर रानीजी से अर्ज की कि अन्नदाताजी अब आप भी पधार कर भोजन ग्रहण कीजिए। इस पर रानी ने कहा कि मेरे तो आज कार्तिक सुदी चौथ का उज़ीरना है सो किसी भूखे आदमी को जिमाकर जिमुंगी। सारे नगर के लोग तो नगर सेठ के यहाँ जीम आए, नगर में अब कोई भी भूखा व्यक्ति नहीं मिला।
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ढूंढते-ढूंढते रानी के सेवक धोबी घाट पहुंचे तो वहां पर एक अंधी बहरी, कोढ़ीन धोबन पड़ी मिली। रानीजी की आज्ञा से उसे महल बुलाया गया, रानीजी ने उसे स्नान कराया। स्नान कराते ही उसका सारा कोढ़ मिट गया और कथा सुनाते ही उसके लिए स्वर्ग से विमान आ गया। बूढ़ी धोबन के कथा सुनने व प्रसाद लेने मात्र से ही वह सदा के लिए वैकुण्ठ चली गई।
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राजा रानी भी हर साल मनसा वाचा का व्रत करते रहे, वे संसार के सब प्रकार के सुखों को भोगते रहे और पुत्र को राजगद्दी देकर अंतकाल में शिवलोक में गए। इस प्रकार मनसा वाचा भगवान शिवजी-पार्वतीजी के व्रत करने की बडी़ भारी महिमा है। श्रावन सदी के सोम से कार्तिक सुदी चौथ तक का यह व्रत सब मनोवांछित फल को देने वाला है।
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इस मनसा वाचा के व्रत को करने वाले मनुष्य की सभी कामनाएं शिवजी महाराज पूर्ण कर देते हैं । पुत्र नहीं हो या होकर जीवित नहीं रहता हो तो इस व्रत के करने से स्त्री पुत्र का सुख अवश्य प्राप्त करती है । इसी प्रकार पुरूष को स्त्री का और स्त्री को पति का सुख-सौभाग्य प्राप्त होता है, जिसके कमाई धंधा न हो तो इस व्रत के करने से शिवशंकर भगवान उसे जीविका प्रदान करते हैं।
- बोलो शिवशंकर भोलेनाथ की जय।
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