शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा | Shukravar Santoshi Mata Vrat Katha

शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा


  • प्राचीन काल की बात है, एक बुढ़िया थी, उसके सात बेटे थे, जिनमें से छः कमाने वाले थे, जबकि एक निकम्मा था। बुढ़िया छहों बेटों की रसोई बनाती, भोजन कराती और उनसे जो कुछ जूठन बचती वह सातवें बेटे को दे देती। परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था। मन में कुछ विचार न करता था।
  • एक दिन वह अपनी पत्नी से बोला, देखो मेरी माँ मुझसे कितना प्रेम करती है, मेरे लिए रोज नाना प्रकार के भोजन बनाती है। इतने में उसकी पत्नी बोली, क्यों नहीं, सबका झूठा जो तुमको खिलाती है। इतने में वह बोला, ऐसा नहीं हो सकता है। जब तक मैं अपनी आँखों से यह सब नहीं देख लेता तब तक मुझे तुम्हारी कही किसी भी बात पर विश्वास नहीं होगा। फिर उसकी पत्नी हंसकर बोली, देख लोगे तब तो मानोगे ना ?
  • कुछ दिन बाद त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। अपनी पत्नी की कही बात का पता लगाने के लिए वह सिर दर्द का बहाना बनाकर एक पतला वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में ही सो गया।
  • परन्तु कपड़ा इतना पतला था कि उसे सब-कुछ कपड़े में से साफ-साफ दिखाई दे रहा था। इतने में उसके छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा, माँ ने उनके लिए सुन्दर आसन बिछाकर उन्हें नाना प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह करके उन्हें खाना खिलाया, यह सब वह कपड़े में से देख रहा था।
  • जब उसके छहों भाई भोजन करके चले गए तब उसने देखा उसकी माँ ने उनकी झूठी थालियों में से लड्डूओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया। जूठन साफ कर बुढ़िया माँ ने उसे पुकारा और कहा, बेटा तेरे छहों भाई भोजन करके चले गए हैं, अब बस तू ही बाकी है, उठ तू भी भोजन कर ले।
  • वह कहने लगा, माँ मुझे भूख नहीं है, मुझे भोजन नहीं करना, मैं अब परदेश जा रहा हूँ। इतने मैं उसकी माँ बोली, कल जाता हो तो आज चला जा। वह बोला, हाँ आज ही जा रहा हूँ। यह कहकर वह अपने घर से निकल गया।
  • चलते समय उसे अपनी पत्नी की याद आई, जो गौशाला में कण्डे थाप रही थी। वह वहाँ जाकर बोला,
  • हम जावे परदेश को आवेंगे कुछ काल।
  • तुम रहियो संतोष से धर्म आपनो पाल॥
  • इतने में उसकी पत्नी बोली,
  • जाओ पिया आनन्द से हमरो सोच हटाय।
  • राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय॥
  • देय निशानी आपनी देख धरूँ मैं धीर।
  • सुधि मति हमारी बिसारियो रखियो मन गम्भीर॥
  • अब उसका पति बोला, मेरे पास तो कुछ नहीं है, बस यह अंगूठी है सो यह ले लो और अपनी कुछ निशानी मुझे दे दो।
  • उसकी पत्नी ने कहा, मेरे पास तो बस यह गोबर भरा हाथ है। इतना कहकर उसने वह गोबर का हाथ उसकी पीठ पर दे मारा और गोबर के हाथ की थाप उसके पकड़े पर छाप दी। इसके बाद वह चल दिया और चलते-चलते दूर देश पहुंचा।
  • उस परदेश में एक साहूकार की दुकान थी। वह लड़का उस दुकान पर जाकर साहूकार से बोला, भाई मुझे नौकरी पर रख लो।
  • साहूकार को भी अपने यहां काम करने के लिए किसी लड़के की जरूरत थी, इसलिए उसने बोला, रह जा।
  • तब लड़के ने पूछा, तनखा क्या दोगे ? इस पर साहूकार बोला, काम देखकर दाम मिलेंगे। अब वह लड़का साहूकार की दुकान पर मन लगाकर काम करने लगा, वह रोज सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक साहूकार की दुकान पर नौकरी करने लगा। कुछ दिनों में वह लड़का इस कार्य में निपुण हो गया और दुकान का सारा काम जैसे सभी लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना वह अकेला ही करने लगा। उसकी इस कर्यत्वपरायणता को देखकर साहूकार के जो दूसरे सात-आठ नौकर थे, वे सब बोले यह तो बहुत होशियार बन गया है।
  • साहूकार उसके काम से अत्यन्त प्रसन्न हुआ और तीन महीने में ही उस लड़के को अपनी दुकान में आधी हिस्सेदारी दे दी। इस प्रकार कुछ वर्षों में ही साहूकार एक नामी सेठ बन गया और वह अपना सारा कारोबर उस लड़के के भरोसे छोड़कर चला गया।
  • इधर पति की अनुपस्थिति में उस लड़के की पत्नी की हालत अच्छी नहीं थी। उसके सास-ससुर उसे दु:ख देने लगे और सारी गृहस्थी का काम कराके उसे जंगल में लकड़ी लेने भेज देते। इस बीच घर के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर उसके लिए रख दी जाती और फूटे नारियल की नारेली में पीने के लिए पानी।
  • एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी, तो उसने देखा रास्ते में कुछ स्त्रियां संतोषी माता का व्रत कर रही हैं।
  • अब उस लड़के की पत्नी भी वहाँ रूक गई और वहाँ खड़ी होकर कथा सुनने लगी और उसने उन स्त्रियों से पूछा, बहिनों तुम यह किस देवता का व्रत करती हो और उसके करने से क्या फल मिलता है ? यदि तुम इस व्रत का विधान मुझे समझा सको तो मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी।
  • तब उनमें से एक स्त्री बोली, सुनो बहिन यह संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है, लक्ष्मी आती है। मन की चिंताएं दूर होती हैं। घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है। निःपुत्र को पुत्र मिलता है। प्रीतम बाहर गया हो तो जल्दी घर आता है। क्वांरी कन्या को मनपसन्द वर मिलता है। राजद्वारे में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो वह खत्म हो जाता है। सब तरह सुख-शान्ति होती है, घर में धन जमा होता है, पैसा जायदाद का लाभ होता है, रोग दूर हो जाते हैं और जो कुछ मन में कामना होती है, वह सब संतोषी माता की कृपा से पूरी हो होती है।
  • तब वह पूछने लगी, यह व्रत कैसे किया जाता है यह भी बता सको तो तुम्हारी बड़ी कृपा होगी।
  • वह स्त्री बोली, सवा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या अपनी सहूलियत से सवा रुपए का भी ले सकते हो। बिना परेशानी और श्रद्धा व प्रेम से जितना भी बन पड़े सवाया ही लेना।
  • प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रह कर कथा सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना, सुनने वाला कोई हो तो उसे कथा सुनाना और अगर कोई नहीं मिले तो घी का दीपक जलाकर उसके सामने या फिर जल के पात्र को सामने रखकर कथा कहना।
  • जब तक कार्य सिद्ध न हो तब तक नियम का पालन करना और जब भी कार्य सिद्ध हो तो व्रत का उद्यापन करना। तीन माह में ही माता फल पूरा करती है और अगर किसी के ग्रह नक्षत्र खोटे हों, तो भी माता वर्ष भर में सभी के कार्य सिद्ध कर देती है, जब तक कार्य सिद्ध नहीं हो नियम का पालन करना चाहिए और कार्य सिद्ध होने पर ही उद्यापन करना चाहिए बीच में नहीं।
  • उद्यापन में ढाई सेर आटे का खाजा तथा इसी मात्रा में खीर तथा चने का साग बनाना और आठ लड़कों को भोजन कराना। जहाँ तक सम्भव हो देवर, जेठ, भाई-बंधु के बच्चे हों और अगर वो न मिलें तो रिश्तेदारों और पास-पड़ोसियों को बुलाना। उन्हें भोजन करा यथा शक्ति दक्षिणा भी देना और माता का नियम पूरा करना। याद रहे उस दिन घर में कोई खटाई न खाए। यह सब सुनकर वहां से उस बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी।
  • उसने रास्ते में सिर पर रखी लकड़ी की गठरी को बेच दिया और उससे जो भी पैसा मिला उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी करने लगी और सामने मंदिर देखकर पूछने लगी, यह मंदिर किसका है ?
  • सब कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है, यह सुनकर माता के मंदिर में जाकर चरणों में लोटने लगी और माँ से विनती करती हुई बोली, हे माँ! मैं निपट अज्ञानी हूँ, व्रत के कुछ भी नियम नहीं जानती, मैं दु:खी हूँ। हे माता! जगत जननी मेरा दु:ख दूर कर मैं तेरी शरण में हूँ।
  • यह सुनकर माता को दया आ आई, जैसे ही एक शुक्रवार बीता कि अगले शुक्रवार को उसके पति का पत्र आ गया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुँचा। यह सब देख उसके जेठ-जेठानी मुंह सिकोड़ने लगे और उनके बच्चे ताने देने लगे, वे कहते काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी।
  • वह बेचारी सरलता से बस यही कहती, भैया कागज आवे, रुपया आवे तो हम सब के लिए ही अच्छा है। ऐसा कहकर उसकी आँखों में आँसू आ गए और वह संतोषी माता के मंदिर में जाकर माता के चरणों में गिरकर रोने लगी। बोली, माँ मैंने तुमसे पैसा कब माँगा है।
  • मुझे पैसे से क्या काम है। मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन माँगती हूँ। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा, जा बेटी, तेरा सुहाग बहुत जल्दी घर आएगा।
  • माता से यह सब सुनकर वह खुशी से बावली हो गई और घर पर जाकर जल्दी-जल्दी काम करने लगी। अब संतोषी माँ विचार करने लगी, इस भोली पुत्री को मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आएगा लेकिन आएगा कैसे ? वह तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता।
  • उसे याद दिलाने को मुझे ही जाना पड़ेगा। इस तरह माताजी उस बुढ़िया के बेटे के स्वप्न में प्रकट होकर उससे बोली, साहूकार के बेटे, सो रहा है या जाग रहा है।
  • वह कहने लगा, माता न ता सो रहा हूं और न ही जाग रहा हूं, बस बीच में ही पड़ा हूं। बोलो मांँ क्या आज्ञा है ?
  • माँ कहने लगी, तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं। इतने मे वह बोला, मेरे पास सब कुछ है। माँ है, बाप है, पत्नी है, क्या कमी है ?
  • फिर माँ बोली, भोले पुत्र तेरी पत्नी घोर कष्ट उठा रही है, तेरे माँ-बाप उसे परेशानी दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध क्यों नहीं लेता ?
  • वह बोला, माता मैं यह सब जानता हूं, परंतु जाऊं तो जाऊं कैसे ? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं है, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चला जाऊं ?
  • माँ बोली, मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर मेरा नाम लेकर घी का दीपक जलाकर दण्डवत करके दुकान पर बैठना। देखते-देखते तेरा सारा लेन-देन चुक जाएगा, तेरा सारा माल बिक जाएगा और सांझ होते-होते धन का भारी ढेर लग जाएगा।
  • सवेरे उसने अपने स्वप्न की बात सभी से कही तो सभी उसका मजाक उड़ाने लगे, वे कहने लगे कि कही सपने भी सच होते हैं। इतने मे एक बूढ़ा बोला, भाई ! जैसे माता ने कहा है वैसे करने में डर क्या है, एक बार करके तो देख।
  • अब बूढ़े की बात मानकर वह नहा-धोकर संतोषी माता को दण्डवत  प्रणाम कर घी का दीपक जला दुकान पर जा बैठा। थोड़ी देर हुई ही थी कि उसने देखा, देने वाले रुपया लाने लगे, लेने वाले हिसाब लेने लगे। कोठे में भरे सामान के खरीददार नकद दाम दे सौदा करने लगे। शाम तक उसके यहां धन का भारी ठेर लग गया। उसने माता का यह चमत्कार देखा और मन में माता का नाम ले वह घर ले जाने के लिए गहना, कपड़ा सामान खरीदने लगा और अपने काम से निपट वह तुरंत घर के लिए रवाना हो गया।
  • उधर उसकी पत्नी बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करती है। वह तो उसके रोजाना रुकने का जो स्थान ठहरा, धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है, हे माता ! यह धूल कैसे उड़ रही है ?
  • माता कहती है, हे पुत्री ! तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख और दूसरा मेरे मंदिर पर व तीसरा अपने सिर पर।
  • तेरे पति को लकड़ियों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी करके वह अपनी माँ से मिलने जाएगा, तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर जाना और चौक में गट्ठर डालकर जोर से आवाज लगाना, लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है ?
  • माँ की बात सुन उसने कहा ठीक है माँ, इतना कहकर वह प्रसन्न हो लकड़ियों के तीन गठ्ठर बनाकर ले आई। एक नदी तट पर तथा एक माता के मंदिर पर रखा, इतने में ही एक मुसाफिर आ पहुंचा। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि अब यही विश्नाम करे और नाश्ता-पानी करके गांव जाए। इस प्रकार वह वहां भोजन बनाने लगा तथा विश्राम करके फिर गाँव की ओर गया। वहां जाकर सबसे प्रेम से मिला।
  • उसी समय उसकी पत्नी सिर पर लकड़ी का गठ्ठर लेकर आती है। लकड़ी का भारी बोझ आंगन में डाल, वह जोर से तीन आवाज देती है, लो सासूजी ! लकड़ी का गठ्ठर  लो। भूसी की रोटी दो। नारियल के खोपरे में पानी दो। आज कौन मेहमान आया है ?
  • यह सुनकर सास बाहर आ आती है, अपने दिए हुए कष्टों को भुलाते हुए वह कहती है, बहू ! ऐसा क्यों कहती है, तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, नए कपड़े-गहने पहन।
  • इतने में आवाज सुन उसका पति बाहर आता है और अंगुठी देख व्याकुल हो उठता है और मां से पूछता, हे मां ! यह कौन है ?
  • मां कहती, बेटा यह तेरी पत्नी है। जब से तू गया है तब से सारे गाँव में भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ करती नहीं, चार पहर आकर खा जाती है। अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी मांगती है।
  • वह बोला, ठीक है माँ मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी, अब दूसरे घर की चाबी दो, उसमें रहूँगा।
  • माँ बोली, ठीक है बेटा जैसी तेरी मरजी। तब उसने दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोला और अपना सारा सामान जमाया। उसके यहां एक ही दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट हो गया। अब उसकी पत्नी सुख भोगने लगी। इतने में अगला शुक्रवार आ गया और उसने पति से कहा, सुनो जी मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है। उसका पति बोला, खुशी से कर। वह उद्यापन की तैयारी करने लगी। उसने अपनी जेठानी के लड़कों को भोजन के लिए कहा जिसे उन्होंने मंजूर कर लिया परन्तु उसके जाने के बाद जेठानी ने अपने बच्चों को सिखा दिया कि तुम भोजन के वक्त खटाई माँगना, जिससे कि उसका उद्यापन पूरा न हो सके।
  • शुक्रवार के दिन जेठानी के लड़के उसके यहां खाना खाने के लिए आए और उन्होंने भर पेट खीर खाई और उसके बाद कहने लगे, खीर खाना हमें भाता नहीं जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो। अब वह कहने लगी, भाई खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। इतने में सारे लड़के उठ खड़े हुए और बोले तो फिर पैसा ही दे दो, वह बेचारी भोली कुछ भी नहीं जानती थी, इसलिए उन्हें पैसे दे दिए।
  • लड़के उसी समय उसके द्वारा दिए गए पैसों से इमली लेकर खाने लगे। यह सब देखकर माताजी को उस पर गुस्सा आ गया। इतने में ही राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए। जेठ-जेठानी अपशब्द कहने लगे वे बोले लूट-लूट कर धन इकट्ठा करके लाया है, अब सब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा। बहू से यह सब सहन नहीं हुआ।
  • वह रोती-रोती माताजी के मंदिर पहुंची और कहने लगी, हे माता! ये तुमने क्या किया, अपनी भक्तिन को पहले खुश किया अब उसे रुलाने लगी हो। इतने में माता बोली, बेटी तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है।
  • वह कहने लगी, माता मैंने ऐसा क्या अपराध कर दिया जो आप मुझसे इतना रूष्ट हो गई हो, मैंने तो भूल से लड़कों को कुछ पैसे दे दिए थे, आप मुझे क्षमा करो। मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूँगी।
  • माँ बोली, अब किसी भी प्रकार की कोई भूल मत करना। वह बोली, मां अब कोई भूल नहीं होगी, अब आप बताओ वो वापस कैसे आएंगे। माँ बोली, जा पुत्री तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलेगा। जैसे ही वह मन्दिर से निकली, उसे उसका पति राह में आता हुआ दिखाई दिया तो उसने अपने पति से पूछा कि आप कहां गए थे। उसका पति कहने लगा, मैंने जो इतना धन कमाया है उसका टैक्स राजा ने माँगा था, बस वही भरने गया था।
  • वह प्रसन्न हो हुई और दोनों अपने घर को चल दिए। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली, मुझे एक बार फिर माता का उद्यापन करना है। पति ने कहा, करो जो तुम्हारी इच्छा हो। वह फिर अपनी जेठानी के लड़कों को भोजन कराने के लिए कहने गई। जेठानी ने एक दो बातें सुनाई और सब लड़कों को सिखाने लगी। तुम सब लोग पहले की तरह ही खटाई माँगना।
  • इस बार जेठानी के लड़के फिर पहले की तरह भोजन से पहले खटाई मांगने लगे और बोले हमें खीर खाना भाता नहीं, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो।
  • इस बार वह बोली, खटाई किसी को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ, वरना मत आओ। इतना कहकर वह ब्राह्मणी के लड़के बुला लाई और उन्हें भोजन कराने लगी, यथा शक्ति उन्हें दक्षिणा की जगह एक-एक फल दिया। इससे संतोषी माता अति प्रसन्न हुई।
  • माता की कृपा से नवें महिने उसके यहां चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र हुआ। पुत्र को पाकर प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी। एक दिन मां ने सोचा, यह पुत्री रोज मेरे यहां आती है क्यों न आज मैं इसके घर जाकर देखूं? यह सोचकर माता ने भयानक रूप बनाया, उनका गुड़-चने से सना मुख था, ऊपर सूंड के समान होठ, जिस पर मक्खियां भिन-भिना रही थी।
  • जैसे ही मां ने देहली पर पैर रखा तो उसकी सास चिल्लाई, देखो ये कौन चुड़ैल-डाकिन चली आ रही है, जाओ लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो यह किसी को खा जाएगी।
  • लड़के माता को भगाने लगे, चिल्लाकर खिड़कियां बंद करने लगे। वह रौशनदान से यह सब देख रही थी और प्रसन्नता से चिल्लाकर बोली, आज मेरी माता जी मेरे घर आई है। इतना कहकर अपने बच्चे को दूध पीने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फट पड़ता है और वह कहती है, क्या उतावली हुए जा रही है, बच्चे को पटक दिया। इतने में मां के प्रताप से सभी जगह लड़के ही लड़के नजर आने लगे। वह बोली, सासुमां मैं जिनका व्रत करती हूँ यह वही संतोषी माता है। सबने माता जी के चरण पकड़ लिए और विनती करते हुए कहने लगे, हे माता ! हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, हमने व्रत भंग कर बड़ा अपराध किया है। हे जग की माता, आप हमारा अपराध क्षमा करो।
  • इस पर माता प्रसन्न हुई। बहु को प्रसन्न हो माता ने जैसा फल दिया, वैसा ही माता सबको दे, जो इस कथा को पढ़े या सुने उन सबका मां मनोरथ पूर्ण करे।
  • बोलो संतोषी माता की जय।
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